Wednesday, November 23, 2011

मेरे हमसफ़र तू बिछड़ गया ...

मेरे हमसफ़र तू बिछड़ गया !

मगर फिर भी क्यों तेरी आहटें
मेरे जेहन-ओ-दिल में खनक रहीं ...
तेरे जिस्म में थीं जो खुशबुएँ
मेरे बाम-ओ-दर पे महक रहीं ...

क्यों तेरे ख़याल का अंजुमन
है फलक का नूर बना हुआ
वो तबस्सुमों का हिजाब है
मेरे सोच-ओ-सच पे तना हुआ

मेरी ज़िन्दगी का हर एक गुल
क्यों है तेरे नाम खिला हुआ ...
मेरी सांस का हर तार क्यों
तेरी धडकनों से मिला हुआ ...

मेरे हमसफ़र जो हुआ है ये
कि तू दिख रहा है ख़फ़ा-ख़फ़ा
गर सच है ये तो मुझे बता
कि तू कब है मुझसे जुदा हुआ ...

मेरे हमसफ़र तू बिछड़ गया ...
मगर मुझसे कब है जुदा हुआ .
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