Thursday, June 9, 2011

या मैं मरघट सा हो बैठा...

मैं अब भी निपट अकेले में
हर रोज ढूंढता हूँ उत्तर
या तुम ही सरगम हो ना सकी
या मैं मरघट सा हो बैठा

जब हमने चाहा था हर क्षण
एक स्नेहिल मौन से भर जाए
उस चुप की मुस्काती धुन पर
कोई गीत प्रणय का छिड़ जाए

लेकिन अब तो ना जाने क्यों
है चीख भरी सन्नाटों में
जो आलिंगन करने को थे
सिमटे हैं स्वप्न कपाटों में

निज-आहूति से अर्जित था
एक पल में पुण्य वो खो बैठा
या तुम ही सरगम हो ना सकी
या मैं मरघट सा हो बैठा

विश्वास रचित निज-नौका में
दिग-पाल बने थे संवेदन
हम प्रेम मगन थे विचर रहे
यह जीवन सरिता मनभावन

वो छिद्र कौन सा था जो उसे
शंका-सिंधु में डूबो बैठा
या तुम ही सरगम हो ना सकी
या मैं मरघट सा हो बैठा
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