Wednesday, December 29, 2010

रिश्ते.......

ऊपर रखना
गुलाब सी रंगत
गहरी परतों में
अश्क़ की तासीर

ये रिश्ते अब
प्याज़ की मानिंद हुए जाते हैं.

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मेरी दौलत
मेरा असबाब था तेरा रिश्ता
आड़े वक़्त के लिए
मुट्ठी में दबा रखा था

खोटे सिक्के सा
हथेली पे निशाँ छोड़ गया.

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मेरे गम पर
उठा लेता है आस्माँ सर पे..
मेरी खुशियों में फलक
नूर से भर देता है

बड़ा बेअदब
वो बेजुबान रिश्ता है...

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जाने कितना
चुका चुका हूँ मैं
कितनी किश्तें
चुकाना बाकी है

वो एक रिश्ता
साहूकार के खाते सा है.

Tuesday, December 14, 2010

ज़िन्दगी क्या है ...

खबर नहीं की खुदी क्या है बेखुदी क्या है *...
सख्त हैरत में हूँ अब और आशिकी क्या है

चमक रही जो जेहन में वो रौशनी क्या है
ये मुझ में आज फिर मुझसे अजनबी क्या है

तमाम लफ़्ज़ों में है दाद शोखियों के तेरे

तेरा जमाल है बस और शायरी क्या है

लज्ज़त--प्यास का तू एहतराम कर तिशनाह
सुबू के सामने टूटे वो तिश्नगी क्या है


उसके पहलु में पड़ा जिस्म मेरा बे-जुम्बिश
गोया ये मौत है तो कह दो ज़िन्दगी क्या है

वही सजदों का सबब है, वही परस्तिश है
मेरे खुदा जो वो नहीं तो बंदगी क्या है .

* गज़ल का पहला मिसरा "मिसरा--तरह" है जिस पर ये तरही गज़ल कही है मैने।
जमाल*- beauty, loveliness; एहतराम*-respect;
तिशनाह*-thirsty;सुबू*- pot that contains water (jug),
तिश्नगी*-thirst, pyaas।

Thursday, December 9, 2010

तू छोड़ दे जन्नत मेरे ख़ुदा...

हम काफिरों को बक्श दे रहमत मेरे ख़ुदा !
आ दिल में बस,तू छोड़ दे जन्नत मेरे ख़ुदा !

हर लम्हा सुर्ख है यहाँ इन्सां के खून से
क्यों सिरफिरों को बख्श दी ताक़त मेरे ख़ुदा

है क्या बिसात गाँधी-ओ-नानक-ओ-बुद्ध की
अब हो गए ये माजी की जीनत मेरे ख़ुदा

जो जिस्म से शफ्फाक हैं पर दिल से कोयले
कैसे करूँ मैं उनकी अब इज्ज़त मेरे ख़ुदा !

काफिर ही कहो मुझको,पर इन्सां तो बचा हूँ
फिरती नहीं हर रोज़ ये नीयत मेरे ख़ुदा !

आ,फिर रहीम-ओ-राम बनके इस जहान में
लुटती तेरे जहान की अस्मत मेरे ख़ुदा !

Monday, December 6, 2010

नन्हीं नज़्में

तुम्हारा होना……
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मुझे छू कर जो गुजरी थी
तुम्हारे अक्स की खुशबू
अब तो हर शब् मेरी सासें
यूँ ही अफरोज रहती हैं
तुम्हारा होना
"मिडास" की छुअन तो नहीं !


मोती……
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स्वाति की इक बूँद
कल मेरी आँख से गिरी थी
तेरी याद की सीपी में

एक नज्म का मोती
आज निकला है वहीँ से


सरगम……
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सा सी साँसों में घुलती जाती है
रे सी रेशमी ख्यालों में
ग सी गर्दन प गुदगुदी जैसी
म सी मुस्कान के उजालों में
प सी पनघट पे एक लहर जैसे
ध सी धडकनों में गाती हुई
नी सी निर्मला ज्यों गंगा कि
दर्द सब संग ले के जाती हुई
वो तो सरगम के सप्त -सुर सी है !

मैं जिसपे गीत लिखता जाता हूँ !

Wednesday, December 1, 2010

मेरी तहरीर में तुझसा शरर नहीं आया

बिछड़ गया तो कभी लौट कर नहीं आया
सफ़र में उसके कहीं अपना घर नहीं आया

होके मायूस सपर जा गिरा शिकंजे में
बिना कफस उसे दाना नज़र नहीं आया

वो एहतराम से करते हैं खूँ भरोसे का
हमें अब तक भी मगर ये हुनर नहीं आया

मेरे वादे का जुनूँ देख, तुझसे बिछड़ा तो
कभी ख़्वाबों में भी तेरा ज़िकर नहीं आया

लगा दे आग हर महफ़िल में नमूं होते ही
मेरी तहरीर में तुझसा शरर नहीं आया

दुश्मनी हमने भी की है मगर सलीके से
हमारे लहजे में तुमसा ज़हर नहीं आया

है "रवि" मील का पत्थर कि जिसके हिस्से में
अपनी मंजिल ,कभी अपना सफ़र नहीं आया

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