Wednesday, November 3, 2010

वीरता का इतिहास






वीर सदा हंस कर पलता हैं ,
असि पर और शरों पर,
जिसकी गाथा खेला करती ,
सदा जगत अधरों पर

वीरत्व सदा जाना जाता हैं ,
अपने तेज प्रखर से ...
साहस रखता जो तोड़ सितारे
ले आने का अम्बर से

सच हैं , वीरता ही रख सकती
हैं विजय की चाह ...
पर हैं सच्चा वीर सदा
जो चले धर्म की राह

वही विजय हैं पूज्य की जिसमे
निहित भुजा का बल हो ...
नहीं कोई भी कपट कोई
लेश मात्र भी छल हो

कहते हैं की वीर पार्थ सम
हुआ कोई जग में ...
पर क्या था कोई मुकाबला
उसमे और एकलव्य में ?

क्या ठहर सकता था कोई
कर्ण समक्ष समर में ..
महाकाल ही स्वयं बसा था
जिस महाबली के शर में

द्रोण-भीष्म सम महारथी भी
मारे गए कपट से ...
वरन काल भी जीत पाता क्या
इन महावीर उद्भट से !

माना कि था भीम सुशोभित
सौ हाथियों के बल से ...
पर कुरुराज पर उसकी विजय भी
क्या नहीं हुई थी छल से

नीति कहती हैं गदा -प्रहार
सदा होता कटि के ऊपर ...
किन्तु भीम ने गदा हनी थी
दुर्योधन की जंघा पर !

ह्रदय सन्न कर देती थी
दुर्योधन की चीत्कार ...
हा ! धर्मराज के भ्राता ने ही
दिया धर्म को मार ... !

लज्जित थी मानवता,
पांचाली का
जब हरण हुआ था चीर ...
कर बांधे बैठे रह गए थे
अर्जुन भीम सम वीर

पर सच हैं यह भी कि वीरता
फिर निर्वस्त्र हुई थी ...
धर्म -युद्ध में कर्ण की हत्या
जब निः -शस्त्र हुई थी !

इतना ही नहीं पूर्व में भी
मर्यादा का हुआ हरण था ...
मर्यादा-पुरूषोत्तम ने जब कपट से
जय का किया वरण था

महावीर बालि जिसको
जीत सका कोई बल से ...
राम ने छिपकर संहार किया था
उसका भी तो छल से

कुटिलता से होती हैं दूषित
शूरता साफ़ - सुवर्ण
वीरत्व के अधिकारी हैं सच्चे
अभिमन्यु और कर्ण

इनके इंगित ओर ही विधि की
रेख मुडी जाती हैं ...
ऐसे पुत्र ही पा जननी की
छाती जुडी जाती हैं


शब्दार्थ : असि - तलवार, कटि - कमर, इंगित - निर्देशित !

8 comments:

फ़िरदौस ख़ान said...

वीर सदा हंस कर पलता हैं ,
असि पर और शरों पर,
जिसकी गाथा खेला करती ,
सदा जगत अधरों पर ।

वीरत्व सदा जाना जाता हैं ,
अपने तेज प्रखर से ...
साहस रखता जो तोड़ सितारे
ले आने का अम्बर से ।

बहुत सुन्दर...

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

बहुत खूब...

monali said...

Kaafi dino baad veer ras se sarabor koi kavita padhi... behad sundar :)

rashmi ravija said...

कुटिलता से होती हैं दूषित
शूरता साफ़ - सुवर्ण…
वीरत्व के अधिकारी हैं सच्चे
अभिमन्यु और कर्ण ।

अक्षरशः सत्य...वो कैसी वीरता जिसे छल का सहारा लेना पड़े.

Dorothy said...

इस ज्योति पर्व का उजास
जगमगाता रहे आप में जीवन भर
दीपमालिका की अनगिन पांती
आलोकित करे पथ आपका पल पल
मंगलमय कल्याणकारी हो आगामी वर्ष
सुख समृद्धि शांति उल्लास की
आशीष वृष्टि करे आप पर, आपके प्रियजनों पर

आपको सपरिवार दीपावली की बहुत बहुत शुभकामनाएं.
सादर
डोरोथी.

Dr Xitija Singh said...

इनके इंगित ओर ही विधि की
रेख मुडी जाती हैं ...
ऐसे पुत्र ही पा जननी की
छाती जुडी जाती हैं ।

waah kya baat hai ... umda prastuti ravi ji ...

संजय @ मो सम कौन... said...

रवि जी,
वीर रस की कविता वैसे भी अच्छी लगती है, ये भी अच्छी ही लगी। थोड़ा सा मतांतर हो तो चलेगा न? आपकी कविता का जो अर्थ मैं ले पाया तो यही कि कुटिल तत्व लिये वीरता से सरल वीरता श्रेयस्कर है। सौ फ़ीसदी सहमत। आपने अभिमन्यु और कर्ण का नाम लिया, मैं तो कुंभकरण को भी शामिल कर लेता, निश्चित मृत्यु जानते हुये भी अंत तक भाई का साथ नहीं छोड़ा उसने।
लेकिन यदि खल बुद्धि अगर किसी वरदान या परिस्थिति के चलते अपराजेय स्थिति में हो, तो कोरी सरल वीरता व्यर्थ है, उदाहरण बालि-वध, दुर्योधन-हनन। सीधी सी राय यह है कि शठ के साथ शठता दिखाकर अन्याय और अन्यायी का खात्मा करना कोई गलत नहीं है।
कविता मर्मज्ञ बिल्कुल नहीं हूँ, अपनी पहचन भी नई नई है फ़िर भी चलन के मुताबिक सिर्फ़ तारीफ़ नहीं कर रहा। आशा है अन्यथा नहीं लेंगे आप।
अब आपने बुरा नहीं माना, ये तभी सिद्ध होगा जब जल्दी ही एक और फ़ड़कती ओजस्वी कविता पढ़ने को मिलेगी:)

Ravi Shankar said...

@फ़िरदौस ख़ान जी

@भारतीय नागरिक जी

मोनाली जी

@रश्मि जी

@डोरोथी जी

क्षितिजा जी…

@संजय जी…

आप सबका बहुत धन्यवाद!

@ संजय जी…

इस में बुरा मानने जैसी कोइ बात ही नहीं है सर, किसी भी रचना का उद्देश्य एक स्वस्थ परिचर्चा ही होती है। मेरी कलम सिर्फ़ प्रशंसा पाने की लालसा में नहीं लिखती। कविता का मूल आशय वैचारिक आदान-प्रदान से परस्पर समृद्ध होना होता है।

कुम्भ्कर्ण की वीरता में तो मुझे लेश मात्र भी सन्देह नहीं है परन्तु शठ के साथ शठता दिखाने वाली बात पर सहमत नहीं हो पाऊँगा। वरदान भी तो पात्रता रखने वाले को ही मिलता है,बन्धु। और जब आप अनीति को अनीति से ही खत्म करने की बात करते हैं तो न्यायी और अन्यायी की तो बात ही बेमानी है ना। महाभारत को धर्म-युद्ध का नाम दिया गया है किन्तु निष्पक्ष विश्लेषण करने पर आप ये पायेंगे की पान्डवों के पक्ष से ही अनीति ज्यादा हावी रही।

इन विषयों पर भी अपनी राय अगली रचनाओं के माध्यम से रख रहा हूँ॥अपने बहुमूल्य विचार जरूर रखियेगा, बिना किसी झिझक के।

नमन!

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